शास्त्रानुकूल मर्यादानुसार विषय भोग किया जाए तो उससे उतनी हानि की शंका नहीं होती। परन्तु यदि भोग वासना से प्रेरित होकर प्राणी मन को सदा विषय चिंतन में व्यक्ति लगाए रहेगा तो उसका अंत:करण दुर्बल पड़ जाएगा और मानसिक शक्ति क्षीण होती जाएगी। जीवन बोझ हो जाएगा और लोक-परलोक कहीं न रहेगा। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह विषयों से बचें, परंतु उससे अधिक उसके मन को विषयों से बचाना आवश्यक है। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ मन यदि पराजित हो गया, मन पर यदि विषयों का कब्जा हो गया, तो जीवन ही विषयाधीन हो जाएगा। विषयाधीन जीवन, परवश, जीवन, दुखद ही रहता है। यदि विषय मन के अधीन रहेगा तो विषयों को जीतने वाला मन विजेता की भांति सदा आनंद में रहता है इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह विजेता बनकर रहे, स्वतंत्र रहे, स्वतंत्रता में ही जीवन की सार्थकता है। अत: व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि जितना साक्षात विषयों से बचे, उससे अधिक विषयों के चिंतन से मन को बचाए। सारी बात मन के ऊपर ही निर्भर है। मन जैसा चाहता है वैसा ही मनुष्य कार्य करता है। प्रवृत्ति-निवृत्ति सब कुछ मन पर ही निर्भर है। विदित-अविदित कोई भी कैसा का